वास्तव में एकादशी (Ekadashi) में कोई भी अन्न नहीं खाना चाहिए क्योंकि इस तिथि को अन्न में पापों का निवास होता है। कंदमूल या श्यामक आदि जो जमीन को जोते बिना ही उत्पन्न होते हैं वे ही व्रत उपवास (Fasting) में ग्रहण करने योग्य हैं। यदि ऐसे पदार्थ उपलब्ध न हो तो फलाहार करना चाहिए परंतु एकादशी को चावल (Rice) का आहार करना शास्त्रीय, धार्मिक और आस्तिकों की सम्मति से पूर्ण रूपेण निषेध कहा गया है।
आप जानते हैं कि चावल को शुरू से लेकर अंत तक पानी ही चाहिए अर्थात चावल यानी धान बोया जाता है तो पानी में, रोपाई होती है तो पानी में, अन्य अन्नों की तरह इसकी एक, दो या चार बार सिंचाई नहीं होती बल्कि जब तक इस के दाने पक नहीं जाते तब तक इसके पौधे पानी में ही रहते हैं। कटाई के बाद खाना बनाते समय जब यह पकाया जाता है तो पानी में ही। कहने का तात्पर्य यह है कि यह पानी का कीड़ा है।
अब दूसरे पहलू की तरफ ध्यान दें। चंद्रमा को हिमांशु, हिमकर आदि कई नामों से जाना जाता है क्योंकि चंद्रमा जल राशि का ग्रह है। यह पानी को अपनी ओर आकर्षित करता है। अष्टमी की तिथि से ही जल के प्रति इसका आकर्षण बढ़ने लगता है। लिखने का तात्पर्य है कि एकादशी की तिथि से ही यह पानी को अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है और पूर्णिमा को इसकी आकर्षण क्षमता जल के प्रति पूरे उद्वेग पर हो जाती हैं जिस कारण समुद्र में ज्वार भाटा आता है। आप किसी भी पूर्णिमा को कोलकाता या मुंबई के समुद्र में ज्वार भाटे का नजारा देख सकते हैं। तो चावल रूप में हमारे अंदर विद्यमान जल को खींचने का प्रयास भला चंद्रमा क्यों नहीं करेगा। परिणाम स्वरुप अपच बदहजमी की शिकायत पेट में उत्पन्न हो सकती हैं।
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इस तरह धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों विधियों से एकादशी को चावल खाना वर्जित कहा गया है। वैसे भी चावल खाने से आलस्य की अधिकता होती है।1 महीने में दो एकादशियां आती हैं| एक कृष्ण पक्ष की दूसरी शुक्ल पक्ष की। जब एक एकादशी को चावल का भोजन नहीं करते तो दूसरी एकादशी को भी न करें तो अच्छा है। व्रत उपवास में आलस्य से बचे रहेंगे। चावल का भोजन निद्रा और आलस्य वर्धक है।